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44 साल बाद देहुली हत्याकांड का फैसला: याद आया वह दौर जब मैं मैनपुरी जेल का अधीक्षक था…

  • bharatvarshsamaach
  • Jun 20
  • 3 min read
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श्री देवी दत्त मिश्रा, सेवानिवृत्त अपर पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश
श्री देवी दत्त मिश्रा, सेवानिवृत्त अपर पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश

लेखक: श्री देवी दत्त मिश्रा, सेवानिवृत्त अपर पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश

(विशेष आलेख – भारतवर्ष समाचार)


आज जब देहुली हत्याकांड का निर्णय 44 वर्षों के लंबे इंतज़ार के बाद आया, तो स्मृतियों के पन्ने अपने आप खुलने लगे।


सन् 1982 की शुरुआत में मेरी पहली पोस्टिंग मैनपुरी जिला जेल में जेल अधीक्षक के रूप में हुई थी। ज्वाइन करते ही वरिष्ठ अधिकारियों ने मुझे विशेष सावधानी बरतने की हिदायत दी — बताया गया कि देहुली हत्याकांड के मुख्य आरोपी संतोषा और राधे इसी जेल में बंद हैं। यहाँ तक कि यह भी कहा गया कि पूर्ववर्ती जेल अधीक्षक को धमकी दी गई थी। ऐसे में मेरी यह पहली जिम्मेदारी थी, और उस समय इतने ख्यातिप्राप्त बंदियों के बीच संतुलन बनाए रखना कोई आसान कार्य नहीं था।


मैंने जेल का सामान्य वातावरण बनाए रखने का भरसक प्रयास किया। दोनों अभियुक्तों के साथ भी मैंने अन्य कैदियों की तरह व्यवहार किया। लेकिन जब कभी जेल नियमों के अनुसार अनधिकृत मुलाकातों पर रोक लगाई जाती या बाहर से भोजन आने पर प्रतिबंध लगाया जाता, तो उनकी प्रतिक्रिया कुछ आक्रामक हो जाया करती थी।


इस दौरान मुझे गुमनाम धमकियाँ भी मिलने लगीं। प्रशासन ने मुझे बुलेट मोटरसाइकिल से अकेले आने-जाने पर प्रतिबंध लगा दिया। पर मैं अपने कार्य में निडर रहा और जेल के अनुशासन को प्राथमिकता दी।


मुझे एक चीज़ स्पष्ट तौर पर महसूस हुई — जेल का माहौल जातीय खांचों में बंटा हुआ था। एक ओर जहां सवर्ण वर्ग अभियुक्तों के साथ सहानुभूति रखता, वहीं पिछड़े और दलित समुदायों की उभरती चेतना भी उन्हें चुनौती दे रही थी। अभियुक्तों के मन में अनुसूचित जातियों के प्रति गुस्सा और असंतोष था, शायद इसीलिए तत्कालीन जिलाधिकारी, जो स्वयं अनुसूचित जाति से थे, उनके खिलाफ संतोषा ने जहर दिए जाने की साजिश का आरोप तक लगा दिया।


पत्रकारों ने जेल में संतोषा का इंटरव्यू लेने की इच्छा जताई, पर प्रशासनिक नियमों के तहत उसे अनुमति नहीं दी जा सकी। जब संतोषा ने शासन को लिखित शिकायत भेजी, तो जिलाधिकारी महोदय ने मुझसे रिपोर्ट मांगी। मैंने संतोषा को स्पष्ट रूप से समझाया —


“अगर तुम्हें सच में ऐसा कोई खतरा है, तो हम जेल के डॉक्टर से तुम्हारा दिन में दो बार स्टमक वाश करवाएंगे, ताकि ज़हर शरीर में टिक ही न पाए।”


अगले ही दिन संतोषा ने अपनी शिकायत लिखित रूप से वापस ले ली और किसी भी साजिश की आशंका से इंकार कर दिया।


इस बीच उसका नाम इतना कुख्यात हो चुका था कि जो भी जेल विज़िट करता, उसे देखने की इच्छा जरूर व्यक्त करता। “बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा” — ये कहावत उस पर बिल्कुल फिट बैठती थी।


एक बार हाईकोर्ट के एडमिनिस्ट्रेटिव जज माननीय न्यायमूर्ति सुदर्शन अग्रवाल, जिला जज श्री हरीशचंद्र सक्सेना, और मैं तीनों मैनपुरी परेड के दौरान उसी से रूबरू हुए। मेरे अनुभव में वह जेल में एक सामान्य बंदी की तरह ही बर्ताव करता था, लेकिन उसका नाम ही लोगों को सिहरन देने के लिए काफी था।


इसी दौरान कुछ लोगों ने मुझे सुझाव दिया कि मैं कुख्यात डकैत अनार सिंह यादव से मिलूं और उसके प्रति सहानुभूति दिखाऊँ, पर मैंने संविधानिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए हर बंदी के साथ निष्पक्षता और नियमबद्धता का व्यवहार किया।


ऐसे अनेक प्रसंग और अनुभव हैं जो समय-समय पर स्मृति में लौट आते हैं — और आज का दिन, जब अदालत ने इस ऐतिहासिक हत्याकांड पर अंतिम मुहर लगाई, उन अनुभवों को फिर से जीवंत कर गया।



📌 संपादकीय विभाग – भारतवर्ष समाचार

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