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क्या पश्चिमी दुनिया पाकिस्तान का पोषक है? — एक गंभीर और व्यापक विश्लेषण

  • bharatvarshsamaach
  • Jun 7
  • 3 min read

लेखक: भारतवर्ष समाचार


परिचय:

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सहयोग और समर्थन की प्रकृति अक्सर जटिल होती है। पाकिस्तान और पश्चिमी दुनिया के रिश्ते भी इससे अछूते नहीं हैं। दशकों से यह सवाल उठता रहा है कि क्या पश्चिमी देश वास्तव में पाकिस्तान के "पोषक" हैं, या फिर यह एक कूटनीतिक और सामरिक जरूरतों का हिस्सा मात्र है। इस लेख में हम इस सवाल की तह तक जाएंगे और इस विषय पर कई ऐतिहासिक तथ्यों, रणनीतिक हितों, आर्थिक पहलुओं और वर्तमान परिस्थितियों का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करेंगे।


पाकिस्तान और पश्चिमी दुनिया: प्रारंभिक सम्बन्ध और रणनीतिक गठबंधन

पाकिस्तान के गठन के तुरंत बाद ही उसकी विदेश नीति में एक खास झुकाव पश्चिमी देशों, विशेषकर अमेरिका की ओर देखा गया। भारत के गुटनिरपेक्ष नीति अपनाने के विपरीत, पाकिस्तान ने सोवियत संघ की फैलती हुई ताकत का मुकाबला करने के लिए पश्चिमी सैन्य गठबंधनों जैसे SEATO और CENTO का हिस्सा बनना चुना।

इस कदम का दोहरा उद्देश्य था — एक ओर सुरक्षा की गारंटी पाना, और दूसरी ओर आर्थिक-सैन्य सहायता प्राप्त करना।


महत्वपूर्ण तथ्य:

  • 1950 और 60 के दशक में अमेरिका ने पाकिस्तान को भारी मात्रा में सैन्य सहायता प्रदान की।

  • पाकिस्तान को F-86 लड़ाकू विमानों, हथियारों और खुफिया उपकरणों से लैस किया गया।

  • यह सहायता पूरी तरह उस समय के भू-राजनीतिक माहौल में सोवियत संघ के खिलाफ एक मोर्चे के लिए दी गई थी।

यह स्पष्ट है कि पाकिस्तान को सहायता दी गई, लेकिन यह किसी मानवीय या विकासोन्मुख दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि एक रणनीतिक आवश्यकता के तहत।


अफगान युद्ध: एक निर्णायक मोड़

1979 में सोवियत आक्रमण के दौरान पाकिस्तान की भूमिका ने इस रिश्ते को और गहरा कर दिया। अमेरिका और उसके सहयोगियों ने पाकिस्तान को एक 'फ्रंटलाइन स्टेट' के रूप में अपनाया।

मुख्य बिंदु:

  • पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI ने अफगान मुजाहिद्दीनों को प्रशिक्षित किया।

  • अरबों डॉलर की अमेरिकी सहायता पाकिस्तान के जरिए अफगानिस्तान पहुंचाई गई।

  • इस सहायता का उद्देश्य सोवियत सेना को अफगानिस्तान से बाहर करना था।

हालांकि, इस सहयोग ने पाकिस्तान के आंतरिक सुरक्षा ढांचे को कमजोर किया। चरमपंथी समूहों का उदय हुआ, जिन्होंने बाद में देश के लिए बड़ी चुनौतियां पेश कीं।

यह साफ है कि इस दौर में पश्चिमी दुनिया ने पाकिस्तान को आर्थिक और सैन्य रूप से पोषित किया, पर इसका उद्देश्य विशुद्ध रूप से अपने राजनीतिक और सामरिक हितों को साधना था।


9/11 के बाद बदलते रिश्ते

9/11 के आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका को पाकिस्तान की फिर से जरूरत पड़ी। पाकिस्तान को 'Non-NATO Ally' का दर्जा मिला और उसे भारी आर्थिक व सैन्य सहायता दी गई।

लेकिन इस दौर में पाकिस्तान के अंदर छुपे कुछ हिस्सों के तालिबान और अन्य आतंकवादी समूहों से संबंधों ने इस रिश्ते को जटिल बना दिया।

विश्लेषण:

  • अमेरिका के संदेह ने पाकिस्तान की भूमिका को संदिग्ध बना दिया।

  • 2011 में ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान के अंदर छिपे होने से अमेरिका का भरोसा पूरी तरह टूट गया।

  • ड्रोन्स हमलों और सैन्य अभियानों ने दोनों देशों के रिश्तों को तनावपूर्ण कर दिया।

यह दौर स्पष्ट करता है कि पाकिस्तान को दी गई सहायता एक संतुलन की कोशिश थी — दोस्ती और संदिग्धता के बीच की एक दुर्व्यवस्थित स्थिति।


आर्थिक सहायता, कर्ज और आज की स्थिति

आज का पाकिस्तान भारी आर्थिक संकट से गुजर रहा है। इसके लिए उसे IMF और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से ऋण लेना पड़ रहा है, जिसकी कड़ी शर्तें होती हैं।

पश्चिमी देशों की मदद अब परंपरागत 'पोषण' की बजाय 'कर्ज और कड़ाई' के रूप में है।

मुख्य तथ्य:

  • चीन की बढ़ती आर्थिक और सैन्य भागीदारी ने पश्चिम को चिंतित कर दिया है।

  • पश्चिमी सहायता अब राजनीतिक शर्तों और आर्थिक सुधारों से बंधी है।

  • पाकिस्तान का आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता संकट में है।

यह दर्शाता है कि पश्चिमी देशों के लिए पाकिस्तान अब उतना लाभकारी या उपयोगी नहीं रहा जितना पहले था।


निष्कर्ष: स्वार्थ के साये में पोषण

पश्चिमी दुनिया ने पाकिस्तान को दशकों तक आर्थिक और सैन्य सहायता प्रदान की, पर यह सहायता सच्चे मित्रता या विकास के लिए नहीं थी। यह हमेशा रणनीतिक हितों का परिणाम रही।

जब भी पश्चिम को पाकिस्तान की जरूरत थी, उसने मदद दी, और जरूरत खत्म होते ही दूरी बना ली। पाकिस्तान के लिए यह एक द्विध्रुवीय अनुभव रहा — पोषण भी मिला, लेकिन उसी के साथ आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक दबाव भी।

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्थायी दोस्ती कम और हितों की साझेदारी अधिक होती है। पाकिस्तान का यह अनुभव इसकी मिसाल है।


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