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नैतिक मूल्यों की स्थापना या नैतिक पुलिसिंग?

  • bharatvarshsamaach
  • Aug 3
  • 4 min read
"यह सिर्फ एक तस्वीर नहीं, एक विचार है — कि समाज को नैतिकता से जोड़ने वाली हर कोशिश ज़रूरी है।"
"यह सिर्फ एक तस्वीर नहीं, एक विचार है — कि समाज को नैतिकता से जोड़ने वाली हर कोशिश ज़रूरी है।"

 

लेखक: गौरव मिश्रा, अधिवक्ता


वर्तमान समय में समाज जिस वैचारिक मोड़ पर खड़ा है, वहां यह प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है कि — क्या आज जो नैतिकता की पुनर्स्थापना का प्रयास हो रहा है, वह वास्तव में समाज को दिशा देने की कोशिश है या फिर इसे महज़ ‘मोरल पुलिसिंग’ कहकर खारिज कर देना चाहिए?


वामपंथ और पूंजीवाद: विपरीत विचारधाराएं या समान उद्देश्य?

प्रथम दृष्टया वामपंथ और पूंजीवाद एक-दूसरे के विरोधी विचार प्रतीत होते हैं — एक राज्य-नियंत्रण की बात करता है और दूसरा मुक्त बाज़ार की। परंतु इन दोनों के बीच एक साझा ध्रुव है: उपभोक्तावाद। यही वह बिंदु है जहाँ ये दोनों विचारधाराएं एक हो जाती हैं।

दोनों विचारधाराएं मनुष्य को केवल एक "उपभोक्ता" के रूप में देखती हैं। इंसान की चेतना, उसकी आध्यात्मिकता, उसका समाज में स्थान — ये सब गौण हो जाते हैं। इसके केंद्र में केवल उसका उपभोग करने की क्षमता रह जाती है।


राजनीतिक सत्ता का स्वरूप चाहे दोनों में अलग हो, लेकिन सामाजिक स्तर पर दोनों ही भौतिकतावाद को बढ़ावा देते हैं। चेतना इनके लिए अर्थहीन है, जड़ता ही प्राथमिक है। यही कारण है कि दोनों विचारधाराएं व्यक्ति को समाज से काटकर एकल और स्वतंत्र इकाई में बदलने के लिए हरसंभव प्रयास करती हैं — एक ऐसा प्राणी, जो अपने स्वार्थ को सर्वोपरि माने, और समाज को ‘बंधन’ समझे।


व्यक्तिवाद का छल और नैतिकता का विघटन

समाज को बेड़ियां और व्यक्ति को सर्वशक्तिमान मानने की यह विचारधारा धीरे-धीरे नैतिकता के मापदंडों को भी व्यक्ति-सापेक्ष बना देती है। समाज के लिए कोई सार्वभौमिक नैतिकता नहीं बचती, सिर्फ व्यक्तिगत सहमति और उपयोगिता ही अंतिम सत्य मानी जाती है।


यौनिकता इसका प्रमुख उदाहरण बनकर उभरती है। धीरे-धीरे धार्मिक परंपराएं दकियानूसी करार दी जाने लगती हैं, और यौनिक उन्मुक्तता को जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि बताया जाने लगता है — और यह सब बहुत ही सूक्ष्म और रणनीतिक ढंग से समाज में उतारा गया।


सांस्कृतिक विमर्श के नाम पर बाज़ार की घुसपैठ

2008 के आसपास दिल्ली मेट्रो में एक प्रचार अभियान चला — “चलो कॉन्डम के साथ”। हर दिन यात्रियों को यह पढ़ना होता था मानो यह कोई ज़रूरी उपभोग की वस्तु हो, जिसे हर हाल में अपने साथ रखना चाहिए। उसी दौर में JNU जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में छात्रों के लिए कॉन्डम वेंडिंग मशीनें लगाई गईं।


इन सब अभियानों में विशेष बल “सुरक्षित यौन संबंध” पर दिया गया, परंतु यह कहीं नहीं कहा गया कि ये संबंध यदि अपने जीवनसाथी के साथ हों, तो यह और भी सुरक्षित, स्थायी और नैतिक होंगे।


इस पूरे विमर्श के पीछे छिपी एक बाज़ार की रणनीति थी, जिसे उदारीकरण ने पूरी ताक़त दे दी। वैश्विक कंपनियों को एक नया बाज़ार दिखने लगा — एक ऐसा समाज, जो उपभोक्तावाद की संस्कृति में गहरे डूब चुका हो।


पब्लिक चॉइस थ्योरी और लाभ-सर्वाधिकता का समीकरण

पब्लिक चॉइस थ्योरी ने व्यक्ति को केवल एक ऐसा प्राणी बना दिया जो "लाभ अधिकतम" की दिशा में चलता है। उसके सारे निर्णय व्यक्तिगत लाभ पर आधारित होते हैं। सामाजिक या नैतिक जिम्मेदारियों का कोई स्थान नहीं होता।


इस सोच के चलते एक ऐसा मूल्यविहीन इंसान पैदा होता है, जो जीवन की चरम उपलब्धि केवल भौतिकता में खोजता है। और ऐसे इंसान के लिए कॉर्पोरेट कंपनियों को एक तैयार उपभोक्ता मिल जाता है — एक ऐसा ग्राहक जो आधुनिक गर्भनिरोधक उत्पाद, डेटिंग ऐप्स, यौन उत्पाद और उपभोक्तावादी मनोरंजन के लिए हमेशा तैयार हो।


फिल्मों और मीडिया का सुनियोजित इस्तेमाल

फिल्में इस अभियान में सहयोगी बन गईं। अब फिल्मों का नायक ड्रग्स लेता है, विवाहेत्तर संबंध रखता है और इसे "आधुनिक सोच" कहा जाता है। इन चित्रणों ने समाज में दुराचार को ‘नॉर्मल’ बना दिया और एक ऐसी पीढ़ी खड़ी की जो बिना सवाल किए हर उपभोक्ता वस्तु को अपनाने को तैयार है।


मूल्यविहीनता और बाज़ार की प्राथमिकता

यह सही है कि हर इंसान की गरिमा सर्वोपरि है। लेकिन जब किसी एक विचार — जैसे यौनिक स्वतंत्रता — का महिमामंडन असंतुलित ढंग से होने लगे, तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है। क्या आपने कभी देखा है कि गरीबों, कुपोषितों या ग्रामीण बच्चों के लिए कोई “प्राइड परेड” हो रही हो? नहीं, क्योंकि वहाँ कोई बाजार नहीं है। वहाँ कोई मुनाफा नहीं है।


हाल ही में डेटिंग ऐप एश्ले मैडिसन की एक रिपोर्ट में एक भारतीय नगर को विवाहेत्तर संबंधों की सूची में शीर्ष पर बताया गया। यह डेटा कितना सत्य है, यह किसी को नहीं पता। लेकिन प्रचार अपने लक्ष्य में सफल रहा — एक नया बाज़ार खड़ा करने में।


धर्म, परंपरा और "मोरल पुलिसिंग" का मिथक

अब जब आध्यात्मिक गुरु या संत इस वैचारिक हमले पर आवाज़ उठाते हैं, तो उन्हें "मोरल पुलिस" कहा जाता है। लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि यही धार्मिक संस्थाएं, परंपराएं और सामाजिक ढांचे ही तो वह आधार हैं, जो हमारे समाज को नैतिक दृष्टि से संतुलित रखते हैं?


अगर ये आज मौन हो गए, तो कुछ ही वर्षों में हमारे पास कहने, सुनने और मानने को कुछ नहीं बचेगा। शब्दों की मर्यादा पर आपत्ति हो सकती है, होनी भी चाहिए, लेकिन भाव को समझना ज़रूरी है।


नैतिकता की साझी जिम्मेदारी

नैतिकता केवल स्त्रियों पर लादने की चीज़ नहीं है, यह पुरुष और स्त्री दोनों की समान जिम्मेदारी है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि भारत जैसे सांस्कृतिक राष्ट्र को केवल बाज़ार नहीं चला सकता। इसके लिए संस्कार, मर्यादा, और विवेक का होना आवश्यक है।


अगर हमारी अगली पीढ़ी जिम्मेदार, संवेदनशील और संस्कृति-केन्द्रित बन सके, तो इसमें हम सभी की भूमिका अनिवार्य है।


निष्कर्ष

आज के इस बाजारवाद-प्रधान युग में नैतिकता की बात करना कठिन अवश्य है, लेकिन आवश्यक भी उतना ही है। विचारों से असहमति हो सकती है, भाषा पर प्रश्न हो सकते हैं — परंतु यह प्रश्न जरूर पूछिए:


क्या आध्यात्मिक गुरुओं की चेतावनी नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना है या उसे केवल ‘मोरल पुलिसिंग’ कह कर नजरअंदाज़ करना हमारी सुविधाजनक चुप्पी है?


#प्रेमानंदमहाराजजी #अनिरुद्धाचार्य

 
 
 

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