सामान्य वर्ग: सामाजिक न्याय के सहभागी या सतत अपराधबोध से ग्रस्त पीढ़ी?
- bharatvarshsamaach
- Jun 19
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लेखक: गौरव मिश्रा, अधिवक्ता – उच्च न्यायालय
आरंभ में ही स्पष्ट कर दूं कि मुझे भारत में आरक्षण की मूल भावना या उसके संविधान सम्मत उद्देश्यों से कोई आपत्ति नहीं है। दरअसल, यह एक ऐसा सामाजिक उपकरण है, जो ऐतिहासिक अन्याय और सामाजिक विषमता की भरपाई के लिए कुछ वर्गों को आगे बढ़ाने का प्रयास करता है—और इस प्रक्रिया में यदि कुछ व्यक्तिगत हितों की आहुति देनी पड़ी हो, तो वह राष्ट्र निर्माण की दिशा में एक आवश्यक और स्वीकार्य त्याग है।
लेकिन विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या यह व्यवस्था नैतिक संतुलन के साथ आगे बढ़ रही है?
मेरी चिंता आरक्षण की वर्तमान आधार-रचना और उससे जुड़े नैरेटिव को लेकर है, जिसमें एक संपूर्ण वर्ग को जन्म के आधार पर 'शोषक' के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा है।
आज के भारत में, जहाँ व्यक्ति की पहचान अब जाति से अधिक उसकी प्रतिभा, परिश्रम और दृष्टिकोण से बनती है—ऐसे समय में एक युवा को यह स्वीकार करना कठिन होता है कि उससे उन अन्यायों की कीमत मांगी जा रही है, जिनमें उसका कोई योगदान नहीं था।
वह न तो उन भेदभावकारी व्यवस्थाओं का समर्थक था, न ही लाभार्थी।
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ऐतिहासिक उत्तरदायित्व बनाम वर्तमान पीढ़ी
यह सच है कि भारतीय समाज की ऐतिहासिक संरचना में गहरी असमानताएँ रही हैं। यह भी सत्य है कि समाज को समतामूलक बनाने के लिए विशेष अवसरों की नीति एक अनिवार्य उपाय रही है। किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि समय के साथ एक बड़ा वर्ग मानसिक रूप से जातिगत श्रेष्ठता की धारणा से विमुक्त हो चुका है। ऐसे में सामाजिक न्याय के नाम पर जब सामान्य वर्ग को निरंतर अपराधबोध की स्थिति में रखा जाता है, तो यह एक प्रकार की नैतिक अन्यायपूर्णता प्रतीत होती है।
क्या ऐसे वर्गों को—चाहे वे किसी भी धर्म या क्षेत्र से हों—सकारात्मक योगदान के लिए कोई संस्थागत या सामाजिक मान्यता नहीं मिलनी चाहिए?
क्या सामाजिक न्याय केवल एकपक्षीय दायित्व बनकर रह गया है?
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नैरेटिव का ध्रुवीकरण और समरसता पर प्रभाव
आरक्षण को जिस ढंग से प्रस्तुत किया गया है, उसमें ‘शोषक बनाम शोषित’ की स्थायी विभाजन रेखा खींच दी गई है। इस नैरेटिव से सामाजिक समरसता की बजाय अंतरविरोध और अविश्वास पनपता है।
क्या हम इस खांचे में समाज को बांटकर एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं?
उत्तर स्पष्ट है – नहीं।
यदि आरक्षण व्यवस्था अपने नैतिक और सामाजिक उद्देश्य में सफल होती, तो आज़ादी के सात दशक बाद भी कुछ समुदाय खुद को और अधिक पिछड़ा सिद्ध करने की होड़ में न लगे होते, न ही प्रोन्नति में आरक्षण की आवश्यकता महसूस होती।
यह इस बात का संकेत है कि केवल विधिक समाधान पर्याप्त नहीं हैं।
शायद इसलिए गांधीजी ने कानून की अपेक्षा नैतिकता पर अधिक बल दिया था। वहीं डॉ. आंबेडकर ने इसे संवैधानिक गारंटी के रूप में देखा।
मुझे लगता है कि दोनों दृष्टिकोण पूरक थे, न कि विरोधी।
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आगे की दिशा: संवाद, संवेदना और संतुलन
अब आवश्यकता है कि हम सामाजिक न्याय को एक सहभागिता आधारित प्रक्रिया के रूप में देखें—जहाँ हर वर्ग, हर व्यक्ति, राष्ट्र निर्माण में बराबरी से योगदान दे।
इसके लिए जरूरी है:
प्रचलित नैरेटिव का पुनर्मूल्यांकन, जिससे सामान्य वर्ग में पनप रहे अपराधबोध को समाप्त किया जा सके।
आरक्षण नीति की पुनर्समीक्षा, ताकि उसका लाभ वास्तव में जरूरतमंदों तक पहुंचे, और वह सामाजिक सौहार्द का माध्यम बने, न कि टकराव का कारण।
प्रोत्साहन की नीति, जिससे सामान्य वर्ग के त्याग और धैर्य को भी मान्यता मिले।
मैं पुनः दोहराना चाहूंगा कि मूल भावना से प्रेरित आरक्षण व्यवस्था से कोई विरोध नहीं है, बशर्ते वह समाज को जोड़ने का कार्य करे, तोड़ने का नहीं।
समाज का प्रत्येक वर्ग यदि ईमानदारी से अपनी भूमिका निभाए, तो वह दिन दूर नहीं जब हम वास्तविक सामाजिक न्याय के आदर्श को न केवल प्राप्त करेंगे, बल्कि उसे टिकाऊ भी बना सकेंगे।
जाति जनगणना इस दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकती है जैसा कि केंद्र सरकार ने घोषणा भी की हैं। वहीं रोहिणी आयोग ने ओबीसी आरक्षण में कोटे के अंदर ही कोटे को लागू करने की सिफारिश की है दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट ने हालिया दविंदर सिंह वाद में अनुसूचित जाति के कोटे में ही सब कोटा को स्वीकृत कर दिया है। तो समाजिक न्याय सुनिश्चित करने की दिशा में हम एक महत्वपूर्ण पड़ाव पर है और ऐसे में ठोस नीतिगत निर्णय दूरगामी परिणाम के वाहक बनेंगे।
– समाप्त

















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